फिलिस्तीन के प्रति भारत की उदासीनता: क्या सिर्फ राजनीतिक समीकरण या कुछ और?

फिलिस्तीन के प्रति भारत की उदासीनता: क्या सिर्फ राजनीतिक समीकरण या कुछ और?

हिज़बुल्लाह प्रमुख हसन नसरल्लाह की मौत के बाद कश्मीर और लखनऊ के कुछ शिया बहुल इलाकों में छिटपुट विरोध प्रदर्शन हुए। हालांकि, यह छोटे पैमाने पर था और इनकी गूंज राष्ट्रीय स्तर पर नहीं सुनाई दी। हैरान करने वाली बात यह थी कि मुस्लिम वोट बैंक पर आश्रित राजनीतिक दल, जैसे कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा) और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), ने न तो कोई बड़ा प्रदर्शन किया और न ही कोई बयान जारी किया। यह सवाल उठाता है कि आखिर भारत में फिलिस्तीन और गाजा के प्रति सहानुभूति इतनी सीमित क्यों है, जबकि एक समय भारत ने फिलिस्तीन के पक्ष में वैश्विक मंचों पर मजबूत समर्थन दिखाया था।

फिलिस्तीन के प्रति वामपंथी समर्थन और सेकुलर पार्टियों की चुप्पी

कुछ वामपंथी बौद्धिक संगठनों ने जंतर-मंतर पर एक छोटा-सा प्रदर्शन कर फिलिस्तीन के प्रति एकता ज़ाहिर की। हालांकि, इस प्रदर्शन में पहले की तुलना में काफी कम उत्साह था। जो ‘सेक्युलर’ पार्टियां कभी फिलिस्तीन के मुद्दे पर मुखर थीं, उन्होंने भी बहुसंख्यक भारतीयों के इजराइल-समर्थक रुख को समझते हुए चुप्पी साध ली। कांग्रेस का रुख अस्पष्ट रहा। जब उन्होंने ‘एक्स’ (पूर्व में ट्विटर) पर टिप्पणी की, तो बाकी विपक्षी दलों ने इससे दूरी बना ली। प्रियंका गांधी ने अवश्य इजराइल के हमलों की निंदा की, लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि उन्हें वायनाड में चुनाव लड़ना है, जहां 40% से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं। इसलिए, उनकी निंदा को एक रणनीतिक कदम माना जा सकता है।

विपक्षी दलों की सावधानी

विपक्षी दलों की सतर्कता एक राजनीतिक संतुलन साधने का प्रयास है। वे मुस्लिम वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहते, लेकिन साथ ही बहुसंख्यक हिंदू समुदाय की भावनाओं को भी आहत नहीं करना चाहते। यह राजनीतिक गणित अब भारत की राजनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण हो चुका है। मुस्लिम और हिंदू वोटरों के बीच एक संतुलन साधने की आवश्यकता ने राजनीतिक दलों को फिलिस्तीन पर सीधे प्रतिक्रिया देने से रोका है।

भारतीयों की उदासीनता: राजनीति या कुछ और?

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आम भारतीय गाजा और फिलिस्तीन के मुद्दे पर इतने उदासीन क्यों हैं? क्या मानवीय त्रासदी अब हमें प्रभावित नहीं करती? या हमने हर चीज़ को राजनीति के चश्मे से देखना सीख लिया है?

इस सवाल का जवाब केवल सांप्रदायिक या धार्मिक आधार पर नहीं, बल्कि भारत के वैश्विक और कूटनीतिक रुख से भी जुड़ा है। इजराइल और फिलिस्तीन का मुद्दा भारत में केवल ‘इजराइल बनाम मुस्लिम’ के रूप में नहीं देखा जा रहा है। कई भारतीय इसे देश के रणनीतिक हितों के नजरिए से भी देख रहे हैं।

फिलिस्तीन और कश्मीर का जोड़: समर्थन में गिरावट का कारण

मुद्दे को और जटिल बनाता है पाकिस्तान और उसके सहयोगी देशों का रवैया। पाकिस्तान लंबे समय से कश्मीर और फिलिस्तीन को एक साथ जोड़कर देखता रहा है, जिसका उल्लेख उसने कई बार संयुक्त राष्ट्र महासभा में भी किया है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीनियों और कश्मीरियों को एक जैसा बताते हुए दोनों को आत्म-निर्णय का अधिकार देने की मांग की थी।

इतना ही नहीं, पाकिस्तान के अन्य सहयोगी जैसे तुर्किये, मलेशिया और ईरान भी इस रुख का समर्थन करते रहे हैं। इन देशों के इस दृष्टिकोण के कारण भारत में फिलिस्तीन के प्रति सहानुभूति कम हुई है। भारतीय जनमानस इसे कश्मीर विवाद से जोड़कर देखता है, जिसमें पाकिस्तान की भूमिका को संदेह की नजर से देखा जाता है।

भारत का बदलता रुख: रणनीतिक साझेदारी और इजराइल

भारत की फिलिस्तीन नीति पिछले कुछ दशकों में नाटकीय रूप से बदली है। एक समय था जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र में 1947 में फिलिस्तीन के बंटवारे का विरोध किया था। लेकिन 1950 में इजराइल को मान्यता दे दी गई थी। इस बदलाव के पीछे कई रणनीतिक कारण थे।

आज, इजराइल भारत का सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदारों में से एक है। दोनों देश रक्षा, कृषि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहित कई क्षेत्रों में गहरे सहयोगी हैं। इजराइल की आधुनिक रक्षा तकनीकें और खुफिया जानकारी भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं, खासकर आतंकवाद विरोधी अभियानों में।

इस्राइल के साथ भारत के गहरे होते रिश्तों के बावजूद, भारत अपनी अरब देशों के साथ भी रिश्तों को बेहतर बनाए हुए है। यूएई, सऊदी अरब, और मिस्र जैसे शक्तिशाली अरब देश अब भारत के बड़े रणनीतिक साझेदार हैं। ये सभी इजराइल के पड़ोसी हैं और कई मौकों पर ईरान समर्थित मिसाइल हमलों को भी रोकते रहे हैं। यह दिखाता है कि पश्चिम एशिया की राजनीति अब केवल यहूदी-मुस्लिम विवाद या सुन्नी-शिया संघर्ष तक सीमित नहीं है।

फिलिस्तीन को लेकर मुस्लिम दुनिया का बदलता रुख

यह भी ध्यान देने योग्य है कि खुद मुस्लिम दुनिया का एक हिस्सा भी अब फिलिस्तीन को पहले जैसी प्राथमिकता नहीं दे रहा है। यूएई और बहरीन जैसे खाड़ी देशों ने अब इजराइल के साथ सामान्यीकृत संबंध स्थापित कर लिए हैं। यह एक संकेत है कि इस्लामी दुनिया के बड़े हिस्से ने फिलिस्तीन को ‘इस्लामी मुद्दे’ के रूप में देखना बंद कर दिया है और क्षेत्रीय रणनीतिक हितों को तरजीह दी है।

भारत की नई विदेश नीति: शीत युद्ध की पुरानी गलतियों से बचते हुए

भारत की विदेश नीति में अब शीत युद्ध के पुराने समीकरणों की जगह राष्ट्रीय हितों ने ले ली है। शीत युद्ध के दौरान, भारत फिलिस्तीन के प्रति सहानुभूति रखता था, लेकिन अब यह समीकरण बदल चुका है। ईरान के बढ़ते अलगाव और उसके शिया सहयोगियों द्वारा इजराइल पर लगातार हमलों के कारण, भारत अब इन पुराने समीकरणों को दोहराने का जोखिम नहीं उठाएगा।

आज के भारत का रुख: राष्ट्रीय हित सर्वोपरि

आज, भारत की सभी नीतियां राष्ट्रहित पर आधारित हैं। जनता भी अब उसी दृष्टिकोण से चीज़ों को देखती है। इजराइल, मध्य-पूर्व और फिलिस्तीन के मुद्दे को लेकर भारत का यह बदला हुआ रुख, सिर्फ एक राजनीतिक या धार्मिक दृष्टिकोण नहीं है। यह एक गहरे, रणनीतिक बदलाव का परिणाम है, जो भारत के वैश्विक शक्तियों के साथ बदलते समीकरणों को दिखाता है।

फिलिस्तीनियों को अगर भारत का समर्थन चाहिए, तो उन्हें सबसे पहले पाकिस्तान और अन्य सहयोगियों से कश्मीर का मुद्दा उठाना बंद करने के लिए कहना होगा। अन्यथा, भारत की जनता और नेतृत्व, फिलिस्तीन के मुद्दे पर उदासीन रहेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *